'फिर रिलीज नहीं, पुनर्जन्म!' उमराव जान फिर परदे पर, यादों में बसी ज़िंदगी फिर से जी उठी

    28-Jun-2025
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- रेड कारपेट पर सजी यादों की चुनर

Umrao Jaan(Image Source-Internet)  
एबी न्यूज़ नेटवर्क।
जियो वर्ल्ड प्लाज़ा की रेड कारपेट पर उस रात कुछ खास था। मशहूर डिजाइनर मुजफ़्फ़र अली और उनकी बेटी सामा अली द्वारा डिज़ाइन किए गए 'हाउस ऑफ कोटवारा' के परिधान में लिपटे लेखक सुवीर सरन जैसे किसी फिल्म प्रीमियर पर नहीं, बल्कि अपनी ही पुरानी ज़िंदगी में दाखिल हो रहे थे। विशाल पोस्टर पर नजर पड़ते ही रेखा की झिलमिलाती छवि, फारूक शेख़ की खोई मोहब्बत और नसीरुद्दीन शाह की ख़ामोश मौजूदगी जेहन में उतर आई।
 
सितारों की महफ़िल, इश्क़ और इज़्ज़त के नाम
पीवीआर इनॉक्स में जब उमराव जान को दोबारा परदे पर उतारा गया, तो यह सिर्फ़ एक फिल्म की स्क्रीनिंग नहीं थी, बल्कि एक एहसास की वापसी थी। अनिल कपूर, आलिया भट्ट, मनीष मल्होत्रा, जैकी श्रॉफ से लेकर हेमा मालिनी, राज बब्बर, आमिर खान और तब्बू तक हर कोई एक दर्शक से बढ़कर, एक श्रद्धालु की तरह पहुंचा था। हर आंख में एक याद, हर दिल में एक दुआ।
 
'यह क्या जगह है दोस्तों?' सवाल भी, जवाब भी
सुवीर बताते हैं कि जब वह सिर्फ़ नौ साल के थे, तभी इस फिल्म ने उन्हें छू लिया। रेखा की आंखों में उन्हें अपनी ही हिचकियां दिखीं, आशा भोसले की आवाज में अपने अनकहे दर्द की गूंज सुनाई दी और मुज़फ़्फ़र अली की संवेदनशील दृष्टि ने जैसे पहली बार उन्हें महसूस कराया – “तुम भी हो, तुम्हारा भी वजूद है।” वही एहसास, जो ज़िंदगी भर उनका सहारा बना रहा।
 
मुजफ्फर अली: निर्देशक नहीं, रूहों के शिल्पकार
मुज़फ़्फ़र अली सिर्फ़ सीन नहीं बनाते, वह अहसास रचते हैं। उमराव को उन्होंने महज़ एक तवायफ नहीं, बल्कि एक ब्रह्मांड के रूप में दर्शाया। उसे तरस नहीं, ताज दिया। सिनेमा को शोर से नहीं, ख़ामोशी से बुना। इसी वजह से *उमराव जान* सिर्फ़ एक कहानी नहीं रही, बल्कि उन तमाम “दूसरों” की आवाज़ बन गई, जिन्हें समाज ने कभी अपनाया नहीं।
 
रेखा: अभिनय नहीं, आत्मा का जागरण
रेखा ने उमराव को निभाया नहीं, जिया। उनके हर ठहराव में सदियों का दर्द था, हर मुस्कान में बिछड़े प्यार की टीस। उसी रात जब रेखा खुद थियेटर में मौजूद रहीं, तब भी वह वैसी ही रोशन दिखीं – मानो वक़्त उनके सामने झुक गया हो।
 
आशा भोसले और खय्याम: सुरों में समाई इबादत
91 वर्ष की आयु में आशा जी ने जब गाया, वह गाना नहीं, दुआ लगा। खय्याम साहब की धुनें और शहरयार के अल्फ़ाज़ “जुस्तजू जिसकी थी…” – महज़ गीत नहीं, ज़िंदगी की संजीवनी बन गए। वह धुनें आज भी दिल की तहों में गूंजती हैं।
 
यादों की महफ़िल, खाने की ख़ुशबू में
स्क्रीनिंग के बाद मुंबई के जुहू में शाद अली (मुजफ्फर अली के बेटे) के घर पर हुई दावत भी बस खाना नहीं थी, बल्कि तहज़ीब और विरासत की पेशकश थी। 37 साल से परिवार के साथ काम कर रहे बावर्ची के हाथों से बनी अवधी डिशेज़ में भी वही सलीका और मोहब्बत महसूस हुई, जो फिल्म में झलकती है।
 
उमराव जान: वक़्त को थाम लेने वाला सिनेमा
आख़िर में सुवीर सरन कहते हैं, उमराव जान फिल्म नहीं, एक ख़ुशबू है एक ऐसा एहसास, जो वक़्त से परे जाकर भी दिल में बसा रहता है। कुछ फिल्में वक़्त को गुज़ार देते हैं, पर कुछ फिल्में वक़्त को अमर कर देती हैं। उमराव जान ने यही किया – उसे देखने वाले आज भी उसी दुनिया में लौट जाते हैं, जहां दर्द भी शायरी बन जाता है और मोहब्बत भी इबादत।